धिक्कार-2 मुंशी प्रेम चंद
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न जाने कितनी रात गुजर चुकी थी। दरवाज़ा खुलने की आहट से माता जी की आँखें खुल गयीं। गाड़ी तेजी से चलती जा रही थी; मगर बहू का पता न था। वह आँखें मलकर उठ बैठीं और पुकारा- बहू ! बहू ! कोई जवाब न मिला।
उनका हृदय धक-धक करने लगा। ऊपर के बर्थ पर नजर डाली, पेशाबखाने में देखा, बेंचों के नीचे देखा, बहू कहीं न थी। तब वह द्वार पर आकर खड़ी हो गयी। बहू का क्या हुआ, यह द्वार किसने खोला? कोई गाड़ी में तो नहीं आया। उनका जी घबराने लगा। उन्होंने किवाड़ बंद कर दिया और जोर-जोर से रोने लगीं । किससे पूछें? डाकगाड़ी अब न जाने कितनी देर में रूकेगी। कहती थी, बहू मरदानी गाड़ी में बैठें। पर मेरा कहना न माना। कहने लगी, अम्माँ जी, आपको सोने की तकलीफ होगी। यही आराम दे गयी?
सहसा उसे खतरे की जंजीर याद आई। उसने जोर-जोर से कई बार जंजीर खींची। कई मिनट के बाद गाड़ी रूकी। गार्ड आया। पड़ोस के कमरे से दो-चार आदमी और भी आये। फिर लोगों ने सारा कमरा तलाश किया। नीचे तख्ते को ध्यान से देखा। रक्त का कोई चिह्न न था। असबाब की जाँच की। बिस्तर, संदूक, संदुकची, बरतन सब मौजूद थे। ताले भी सब बंद थे। कोई चीज़ गायब न थी। अगर बाहर से कोई आदमी आता, तो चलती गाड़ी से जाता कहाँ? एक स्त्री को लेकर गाड़ी से कूद जाना असंभव था। सब लोग इन लक्षणों से इसी नतीजे पर पहुँचे कि मानी द्वार खोलकर बाहर झाँकने लगी होगी और मुठिया हाथ से छूट जाने के कारण गिर पड़ी होगी। गार्ड भला आदमी था। उसने नीचे उतरकर एक मील तक सड़क के दोनों तरफ तलाश किया। मानी का कोई निशान न मिला। रात को इससे ज़्यादा और क्या किया जा सकता था? माताजी को कुछ लोग आग्रहपूर्वक एक मरदाने डिब्बे में ले गये। यह निश्चय हुआ कि माताजी अगले स्टेशन पर उतर पड़ें और सबेरे इधर-उधर दूर तक देख-भाल की जाय। विपत्ति में हम परमुखापेक्षी हो जाते हैं। माताजी कभी इसका मुँह देखती, कभी उसका। उनकी याचना से भरी हुई आँखें मानो सबसे कह रही थीं- कोई मेरी बच्ची को खोज क्यों नहीं लाता?हाय, अभी तो बेचारी की चुंदरी भी नहीं मैली हुई। कैसे-कैसे साधों और अरमानों से भरी पति के पास जा रही थी। कोई उस दुष्ट वंशीधर से जाकर कहता क्यों नहीं- ले तेरी मनोभिलाषा पूरी हो गयी- जो तू चाहता था, वह पूरा हो गया। क्या अब भी तेरी छाती नहीं जुड़ाती ।
वुद्धा बैठी रो रही थी और गाड़ी अंधकार को चीरती चली जाती थी ।